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सु॒गोत ते॑ सु॒पथा॒ पर्व॑तेष्ववा॒ते अ॒पस्त॑रसि स्वभानो। सा न॒ आ व॑ह पृथुयामन्नृष्वे र॒यिं दि॑वो दुहितरिष॒यध्यै॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sugota te supathā parvateṣv avāte apas tarasi svabhāno | sā na ā vaha pṛthuyāmann ṛṣve rayiṁ divo duhitar iṣayadhyai ||

पद पाठ

सु॒ऽगा। उ॒त। ते॒। सु॒ऽपथा॑। पर्व॑तेषु। अ॒वा॒ते। अ॒पः। त॒र॒सि॒। स्व॒भा॒नो॒ इति॑ स्वऽभानो। सा। नः॒। आ। व॒ह॒। पृ॒थु॒ऽया॒म॒न्। ऋ॒ष्वे॒। र॒यिम्। दि॒वः॒। दु॒हि॒तः॒। इ॒ष॒यध्यै॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:64» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह स्त्री कैसी हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वभानो) अपनी दीप्तियुक्त (पृथुयामन्) बहुत पदार्थों की प्राप्ति करानेवाले (ऋष्वे) महान् गुणयुक्त विद्वन् ! आप इस स्त्री के साथ (रयिम्) लक्ष्मी को (आ, वह) प्राप्त कराइये और (नः) हम लोगों की रक्षा करिये तथा (अपः) जलों के समान दुःखों को (तरसि) तरते अर्थात् उनसे अलग होते हो और (अवाते) निर्वात होने से (पर्वतेषु) पर्वतों में जैसे सुपथ से जाते हो तथा जो (ते) तुम्हारी (सुगा) सुन्दरता से जाने योग्य स्त्री वा हे (दिवः) प्रकाश की (दुहितः) कन्या के समान वर्त्तमान स्त्री ! तू पति को (इषयध्यै) प्राप्त होने योग्य हो (उत) और तेरा पति तेरे मन का प्रिय हो (सा) तू हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग से सुख प्राप्त करा ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छी नीतिवाले राजजन पर्वतों में भी अच्छे मार्गों को बनाकर सब मार्ग चलनेवालों को सुखी करते हैं वा जैसे उषा (प्रभातवेला) मार्गों को प्रकाशित करती है, वैसे ही उत्तम परस्पर प्रसन्न स्त्री पुरुष धर्ममार्ग का संशोधन कर परोपकार का प्रकाश कराते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्सा स्त्री कीदृशी भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे स्वभानो पृथुयामन्नृष्वे ! त्वमनया भार्यया सह रयिमा वह नोऽवाप इव दुःखानि तरसि, अवाते पर्वतेषु सुपथा गच्छसि या ते सुगा स्त्री वा हे दिवो दुहितरिव वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं पतिमिषयध्यै उतापि ते पतिर्हृद्यो भवेत् सा त्वं नः सुपथा सुखमा वह ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुगा) सुष्ठु गन्तुं योग्या (उत) अपि (ते) तव (सुपथा) शोभनेन मार्गेण (पर्वतेषु) शैलेषु (अवाते) निर्वाते (अपः) जलानि (तरसि) (स्वभानो) स्वकीयदीप्ते (सा) (नः) अस्मान् (आ) (वह) गमय (पृथुयामन्) बहुप्रापक (ऋष्वे) महागुणयुक्त (रयिम्) श्रियम् (दिवः) प्रकाशस्य (दुहितः) कन्येव वर्त्तमाने (इषयध्यै) गन्तुम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुनीतयो राजानः पर्वतेष्वपि सुमार्गान्निर्माय सर्वान् पथिकान् सुखयन्ति यथोषा मार्गान् प्रकाशयति तथैवोत्तमाः परस्परं प्रसन्नाः स्त्रीपुरुषा धर्ममार्गं संशोध्य परोपकारं प्रकाशयन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे नीतिमान राजजन पर्वतामध्येही चांगले मार्ग तयार करून प्रवाशांना सुखी करतात किंवा उषा मार्गाला प्रकाशित करते तसे उत्तम व प्रसन्न स्त्री-पुरुष परस्पर मिळून धर्ममार्गाचे संशोधन करून परोपकाराचा प्रकाश पसरवितात. ॥ ४ ॥